दुर्ग। 21वीं सदी में तकनीक ने हमारे जीवन को अत्यधिक सरल और सुविधाजनक बना दिया है। शिक्षा, मनोरंजन, जानकारी और संवाद — सब कुछ अब डिजिटल स्क्रीन पर सिमट चुका है।
परंतु यही डिजिटल क्रांति आज हमारे बच्चों की आँखों के लिए सबसे बड़ा खतरा बनती जा रही है।
मोबाइल, टीवी, लैपटॉप और टैबलेट अब बच्चों के जीवन का अनिवार्य हिस्सा बन चुके हैं। कोविड-19 के दौरान ऑनलाइन शिक्षा ने इस निर्भरता को और भी बढ़ा दिया। परिणामस्वरूप, आज अधिकांश बच्चे “डिजिटल आई स्ट्रेन”, मायोपिया (निकट दृष्टि दोष) और ड्राई आई सिंड्रोम जैसी समस्याओं से जूझ रहे हैं — और यह संख्या लगातार बढ़ रही है।
डिजिटल आई स्ट्रेन — एक नयी मूक महामारी ...
लंबे समय तक स्क्रीन देखने से आँखों की मांसपेशियाँ लगातार तनाव में रहती हैं। इससे बच्चों में धुंधला दिखाई देना, सिरदर्द, आँखों में जलन या भारीपन, ध्यान केंद्रित करने में कठिनाई और नींद की समस्या जैसी शिकायतें बढ़ जाती हैं।
छोटे बच्चे अक्सर अपनी परेशानी स्पष्ट रूप से नहीं बता पाते, परन्तु माता-पिता इन संकेतों से सतर्क हो सकते हैं -
-टीवी या मोबाइल बहुत पास से देखना
-पढ़ते समय आँखें सिकोड़ना या एक आँख बंद करना
-सिर तिरछा करके देखना
बार-बार पलकें झपकाना या आँखें मलना
-पढ़ाई के समय सिरदर्द की शिकायत करना।
ये सभी संकेत दृष्टि दोष या आँखों पर अधिक दबाव के प्रतीक हैं और इनकी उपेक्षा नहीं की जानी चाहिए।
बाहर खेलना क्यों ज़रूरी है ...
पिछले कुछ वर्षों में किए गए कई अंतरराष्ट्रीय अध्ययनों ने यह सिद्ध किया है कि जो बच्चे प्रतिदिन कम से कम एक घंटा प्राकृतिक धूप में खेलते हैं, उनमें मायोपिया की संभावना 30–40% तक कम होती है।
प्राकृतिक प्रकाश आँखों की रेटिना के विकास को संतुलित रखता है और फोकसिंग मांसपेशियों को रिलैक्स करता है।
इसके विपरीत, घर के भीतर लगातार कृत्रिम रोशनी में स्क्रीन देखने से आँखों पर तनाव बढ़ता है और अल्प आयु में ही चश्मे की आवश्यकता पड़ने लगती है।
बच्चों की आँखों की सुरक्षा के लिए पाँच प्रमुख सुझाव-
1. सही रोशनी और दूरी बनाए रखें — कमरे की रोशनी और स्क्रीन की ब्राइटनेस समान रखें। स्क्रीन कम से कम 40–45 सेंटीमीटर की दूरी पर हो।
2. “20-20-20 नियम” अपनाएँ — हर 20 मिनट पर, 20 सेकंड के लिए, 20 फीट दूर किसी वस्तु को देखें। यह आँखों की मांसपेशियों को आराम देता है।
3. बच्चों को बाहर खेलने के लिए प्रेरित करें — रोज़ कम से कम 1 घंटा आउटडोर एक्टिविटी ज़रूर हो।
4. नियमित नेत्र परीक्षण कराएँ — हर 6 महीने या साल में एक बार, भले ही कोई स्पष्ट समस्या न हो।
5. स्क्रीन टाइम पर निगरानी रखें — 2 वर्ष तक के बच्चे को स्क्रीन ना देखने दे। 2 से 5 वर्ष आयु के बच्चों के लिए रोज़ 1 घंटे से अधिक स्क्रीन टाइम न दें। सोने से एक घंटा पहले स्क्रीन पूरी तरह बंद करे
6. - शिक्षकों और अभिभावकों की भूमिका
स्कूलों में भी दृष्टि समस्याओं की पहचान में शिक्षकों की अहम भूमिका है। यदि बच्चा ब्लैकबोर्ड पर लिखी बातें पढ़ने में कठिनाई जताए या बार-बार आगे आकर देखे, तो अभिभावकों को तुरंत नेत्र विशेषज्ञ से संपर्क करना चाहिए।
इसी प्रकार, घर पर माता-पिता को बच्चों के डिजिटल उपकरणों के प्रयोग का समय नियंत्रित करना चाहिए, और उन्हें परिवार के साथ संवाद व बाहरी गतिविधियों में शामिल होने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए।
संतुलन ही समाधान है ..
स्क्रीन को जीवन से पूरी तरह हटाना न तो संभव है, न ही व्यावहारिक। आज शिक्षा, ज्ञान और मनोरंजन सब डिजिटल माध्यम पर निर्भर हैं। लेकिन “डिजिटल संतुलन” बनाना आवश्यक है।
बच्चों को समझाना होगा कि मोबाइल या टीवी कोई खेल का विकल्प नहीं है, बल्कि सिर्फ एक उपकरण है — जिसे सीमित समय के लिए उपयोग करना चाहिए।
भविष्य की नज़र — स्वस्थ और स्पष्ट ..
हम, माता-पिता और चिकित्सक, सभी की ज़िम्मेदारी है कि हम अपने बच्चों की आँखों की सेहत को प्राथमिकता दें।
याद रखें - “एक स्वस्थ दृष्टि सिर्फ देखने की शक्ति नहीं, बल्कि सीखने और सपने देखने की क्षमता भी देती है।”
आइए, मिलकर सुनिश्चित करें कि डिजिटल दुनिया में हमारे बच्चों की नन्ही नज़रों पर कोई धुंध न छाए। स्वस्थ आँखें ही उज्ज्वल भविष्य की नींव हैं।
लेखक: डॉ. ऋचा वर्मा
एम.एस. (ऑप्थॉल्मोलॉजी), वरिष्ठ नेत्र रोग विशेषज्ञ
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