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प्रदेश में बिगड़ रहा स्वास्थ्य और शिक्षा का हाल, अरुण वोरा का कटाक्ष, बोले - “शिक्षा-स्वास्थ्य अब अधिकार नहीं, उत्पाद बन गए हैं"

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दुर्ग। प्रदेश में शिक्षा और स्वास्थ्य का निजीकरण अब उस मोड़ पर पहुंच चुका है, जहां ये मूलभूत सुविधाएं अब ‘सेवा’ नहीं, बल्कि एक ‘सेवा-उत्पाद’ बन चुकी हैं- एक ऐसी सेवा, जिसका मूल्य आपकी जेब देखकर तय होता है। हालात इतने बदतर हो चुके हैं कि निजी चिकित्सालयों और विद्यालयों की व्यवस्था आम नागरिक, खासकर मध्यम वर्ग के लिए बोझ बन गई है।
छत्तीसगढ़ के एकमात्र सरकारी हृदय चिकित्सालय- अंबेडकर चिकित्सालय स्थित उन्नत कार्डियक संस्थान (एसीआई) - में बीते चार महीनों से बायपास और ओपन हार्ट सर्जरी जैसी ज़रूरी प्रक्रियाएं ठप पड़ी हैं।
ऑपरेशन के लिए आवश्यक सामग्रियों की आपूर्ति करने वाले विक्रेता को बीते दो वर्षों से भुगतान नहीं हुआ है, जिसके चलते उसने आपूर्ति रोक दी। हालात इतने बदतर हैं कि चिकित्सालय में भर्ती आठ रोगी ऑपरेशन का इंतजार कर रहे हैं। इनमें से दो रोगियों की जान जा चुकी है।वोरा ने इस पर कहा - 
“बीमार होना इस देश में अब केवल शारीरिक कष्ट नहीं रहा - यह आर्थिक आपदा बन गया है। सरकार केवल औषधियों की वस्तु एवं सेवा कर कम करने की बात करती है, लेकिन चिकित्सालयों पर नियंत्रण की कोई ठोस नीति नहीं बनाती।”
देश में हर वर्ष क़रीब दस करोड़ भारतीय महंगे उपचार के चलते गरीबी रेखा के नीचे पहुंच जाते हैं। 2024 में देश की चिकित्सा मुद्रास्फीति दर 14% रही - जिससे इस अप्रैल से 900 आवश्यक औषधियों के मूल्य बढ़े हैं।जब स्वास्थ्य सेवा अप्राप्य हो जाती है, तो यह परिवारों को असंभव विकल्पों पर मजबूर कर देती है।लाखों मध्यम वर्गीय परिवार चिकित्सा बिलों के कारण गरीबी में गिर गए हैं।
-शिक्षा: अधिकार या व्यापार?
गरीबों के लिए शिक्षा दूर का सपना, मध्यम वर्ग के लिए भारी बोझ और अमीरों के लिए व्यापार।
निजी विद्यालयों की शुल्क में औसतन 45% की वृद्धि हुई है, लेकिन सरकारी नियमन शून्य है। निजी विद्यालयों की मनमानी शुल्क पर रोक लगाने वाला कोई नियामक आज तक नहीं बनाया गया। सरकारी विद्यालयों की स्थिति जानबूझकर बिगाड़ी जा रही है ताकि लोग मजबूर होकर महंगे निजी विद्यालयों का सहारा लें।वोरा ने कहा -“शिक्षा का बाज़ारीकरण देश की सबसे बड़ी त्रासदी बन चुका है, और भारतीय जनता पार्टी सरकार इसकी सूत्रधार है। शिक्षा का अधिकार तब तक अधूरा है जब तक सरकार सभी वर्गों के बच्चों को समान अवसर और गुणवत्ता न दे।”
-कहां जाए मध्यम वर्ग?
गरीबों के लिए कभी-कभी योजनाएं आ भी जाती हैं, अमीरों को निजी विकल्प मिल जाते हैं - लेकिन मध्यम वर्ग उस जाल में फंसा होता है जहां सरकारी विद्यालय-चिकित्सालय में भरोसा नहीं, और निजी विकल्प जेब काट लेते हैं।
यदि यह स्थिति ऐसे ही बनी रही, तो आम नागरिकों को न सिर्फ़ आर्थिक नुकसान झेलना होगा, बल्कि आत्मसम्मान और मानसिक शांति भी दांव पर लग जाएगी।

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