पुतरा पुतरी विवाह में पुतरा की बारात लेकर पहुंचे विधायक अरुण वोरा!

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दक्षिणापथ, दुर्ग। मुख्यमंत्री भूपेश बघेल की कुर्सी पर आए संकट भले ही टल गये हो, मगर इसके व्यापक व गहरे निहितार्थ भी है। पंक्तियों के पीछे छुपी इबारत बताती है कि राज्य सत्ता के सर्वोच्च प्रतीक के कई दावेदार सरकार को सुचारू ढंग से चलाकर राज्य में विकास करने के बजाए अपने निजी हितों के लिए सरकार को ही संकट में डालने से गुरेज नहीं करेंगे। कांग्रेस आला कमान ने फिर से भूपेश पर भरोसा जताकर राज्य में गलत परम्परा स्थापित होने से रोक लिया है। पर इसका आशय यह भी नही कि छत्तीसगढ़ कांग्रेस फिर से एकता के सूत्र में बंध गई हो। अंदरूनी घमासान चलते रहेगा। लोकतांत्रिक प्रणाली में ऐसी घटनाओं के लिए पूरा स्थान है, क्योकि सत्ता के कुछ सालों में स्वाभाविक रूप से पनपने वाले अधिनायक व फासिज्मवाद पर अंकुश लगता है।
इससे इंकार नही किया जा सकता कि छत्तीसगढ़ सरकार में मचा घमासान सरकार की आंतरिक ध्रुवीकरण की बानगी है। गुटीय लड़ाई जारी है, यह स्पष्ट है।
दूसरी ओर छत्तीसगढ़ीयावाद के फैक्टर का सवाल भी सलीब पर लटका हुआ था। भूपेश को बनाये रखने से स्थानीयवाद को मजबूती मिला है।
आम लोगो को यह ठीक नही लगता कि छत्तीसगढ़ का फैसला दिल्ली में बैठे हुए लोग अपने हिसाब से करें। प्रदेश की जनता ने जिस जननेता पर भरोसा जताक़त भारी जनादेश दिया था, दिल्ली स्थित कांग्रेस पार्टी के केंद्रीय कार्यालय में उसकी मर्यादा कायम रखा जाना नितांत जरूरी था, क्योकि चुनाव तो हर 5 साल में आना है।
एक वर्ग इस संघर्ष को छत्तीसगढ़ के दो अलग अलग इलाको के वर्चस्व की लड़ाई के रूप में भी देख रहा है। उत्तरी छत्तीसगढ़ में बिहार, झारखण्ड व उत्तरप्रदेश के मिलाजुला प्रभाव देखने मिलता है। वर्तमान भूपेश सरकार को हिलाने के लिए इस वर्ग ने भी पूरा जोर लगाया। मुख्यमंत्री भूपेश बघेल छत्तीसगढ़ की माटी में पैदा हुए और यही पले बढ़े हुए नेता है। जबकि सिंहदेव बाबा के जीवन का बड़ा हिस्सा मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश समेत महानगरों व रियासती में बीता है। भूपेश किसान के बेटे है, जबकि बाबा राज परिवार से जुड़े है।
छत्तीसगढ़ के लोग अपने बीच का अपने जैसे साधारण नेता को अवसर देने चाहता है। वर्तमान घटना इसका भी प्रतीकात्मक उदाहरण है।

छत्तीसगढ़िया स्वाभिमान के प्रतीक बन गए है भूपेश सरकार:

छत्तीसगढ़ के राजनीतिक घमासान से भाजपा का खुश होना स्वाभाविक है, पर उत्तर भारत से जुड़े वे कांग्रेसी व आम लोग भी प्रसन्न थे, जो छत्तीसगढ़िया वाद को अपने लिए खतरा मानते है। परप्रांतीय लोग शुरू से ही भुपेश बघेल की ताजपोशी को हजम नही कर पा रहे थे। स्थानीय हितों को लेकर जब सरकार बेहतर कार्य करने लगी, यह गम भी इस वर्ग को सालने लगा था। यहां तक ऐसे नौकरी पेशे व अधिकारी जो दूसरे राज्यो से यहां आए है, भुपेश को स्वीकार करना नही चाह रहे थे। पर बीते ढाई सालों में भुपेश लगातार छत्तीसगढ़िया स्वाभिमान के प्रतीक बनते गए। छत्तीसगढ़ के लोगो ने स्वाभिमान के साथ सत्ता में अपनी भागीदारी का अहसास किया। गांव, ग्रामीण, किसानों ने महसूस किया कि प्रदेश में ऐसी सरकार है, जिन्हें उनकी चिंता है। वर्तमान हालात में ऐसे है कि राजनीतिक पंडित दावा करते है कि आगामी चुनाव में भी बघेल सरकार रिपीट हो सकती है। ऐसे में एक लोकप्रिय सरकार को दिल्ली में बैठे लोग फेरबदल कर दे, यह पार्टी के लिए नुकसानदायक होता।