गीतांजली संगीत महा. भवन का लोकार्पण गृहमंत्री ने किया

गीतांजली संगीत महा. भवन का लोकार्पण गृहमंत्री ने किया

दक्षिणापथ, दुर्ग। आप पैसों में से नए पैसे बनाते हो वो जैसे दुनियादारी हिसाब से आवश्यक है वैसे आप वर्तमान पुण्य में से नया पुण्य बनाए यह भी साधना की भूमिका से आवश्यक है। अपने पुण्य के कारण ही आप स्वस्थ, सुखी और संतुलित जीवन जी रहे हो। पुण्य होता नहीं था तो आप अस्वस्थ, दु:खी और असंतुलित जीवन जीते होते थें। अब आप की जिम्मेदारी बनती है नया पुण्य उपार्जन करने की। उक्त उद्गार श्री उवसग्गहरं पाश्र्व तीर्थ में चातुर्मास प्रवचन श्रृंखला में मुनि श्री प्रशमरति विजय (देवर्धि साहेब) म सा ने व्यक्त किए!!
पू देवर्धि साहेब ने कहा कि पुण्य की तीन गति होती हैं। एक, आप पुण्य का सद् उपयोग करते हुए अधिक से अधिक सत्कार्य करते हैं। जैसे एक छोटे दीपक से हजारो दीपक जलाये जा सकते हैं वैसे थोड़े से पुण्य में से विशाल पुण्य का नव उपार्जन हो सकता है। पुण्य वो शक्ति है जो मृत्यु के बाद भी साथ देती है।
दो, आप पुण्य का असद् उपयोग करते हुए स्वार्थ और अहंकार के कार्य करते हैं। जैसे थोडा सा कचरा, विशाल जलराशि को गंदा कर देता है वैसे स्वार्थ भाव और अहंकार से पुण्य का बल क्षीण हो जाता है। याद रखना कि आनंद प्रमोद से पुण्य का केवल व्यय होता है, उपार्जन बिलकुल नहीं होता है। वर्तमान पुण्य खत्म हो जाये उसके पूर्व नया पुण्य बना लेना जरूरी है। अन्यथा पुण्य उपार्जन करना असंभव हो जायेगा।
तीन, आप पुण्य का दुरूपयोग करते हुए दुष्ट और अनुचित प्रवृत्ति करते हैं जिस से पाप कर्म का बंध होता है और भविष्य में दुर्गति होती है। आप को ऐसी गलती करनी नहीं चाहिए। मृत्यु के बाद पाप कर्म साथ में आता है और आगामी जन्मों को दु:ख से भर देता है। सारांश यह है कि आप पुण्य में से पुण्य का उपार्जन करें। आप पुण्य को स्वार्थ की प्रवृत्तिओं में खत्म न करें। आप पुण्य में से पाप का सर्जन न करें।