छत्तीसगढ़

यह मुकेश की नहीं, बस्तर की पोस्टमॉर्टेम रिपोर्ट है!

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(आलेख : बादल सरोज)।
‘सिर पर 15 फ्रैक्चर्स, लीवर के 4 टुकड़े, दिल फटा हुआ, 
5 पसलियां, कॉलर बोन और गर्दन टूटी हुई, बांयी कलाई पर गहरा जख्म ; शरीर का एक भी हिस्सा ऐसा नहीं था, जिस पर चोट के निशान न हों।‘ यह बस्तर के युवा पत्रकार मुकेश चंद्राकर की पोस्टमॉर्टेम रिपोर्ट में दर्ज किया गया ब्यौरा है। शव-परीक्षण करने वाले डॉक्टर्स का कहना था कि उन्होंने अपने पूरे जीवन में इतनी अधिक निर्ममता से की गयी हत्या नहीं देखी, जितनी निर्ममता से इन्हें मारा गया है।   

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मुकेश बस्तर के बीजापुर को केंद्र बनाकर पत्रकारिता करते थे। 'बस्तर जंक्शन' के नाम से उनका अपना यूट्यूब चैनल था, जिसके कोई पौने दो लाख सब्सक्राइबर्स थे। मुकेश की तरह यह चैनल भी विश्वसनीयता और निडरता, संजीदगी और तथ्यपरकता के लिए जाना जाता था। इस चैनल को देखने वाले सोच भी नहीं सकते थे कि इसका सम्पादक, रिपोर्टर, कैमरापर्सन, वीडियो एडिटर, डिजाइनर, टेक्नीशियन सब कुछ  33 वर्ष का एक अत्यंत धुनी और ऊर्जावान युवा है, जो सुदूर बस्तर के भी बस्तर माने जाने वाले  बीजापुर के एक कमरे में बैठकर ख़बरें तैयार कर रहा है। उनकी खबरें सचमुच की न्यूज़ होती थी, -- टेबल पर बैठकर कट पेस्ट की गयी, इधर उधर की क्लिप्स उठाकर बनाई गयी नहीं, मौके पर जाकर शूट की गयी, संबंधितों से सीधे बात करके संकलित और एकदम चुस्त संपादित कैप्सूल होती थी। इस ताजगी की वजह उनकी प्रामाणिकता और स्वीकार्यता थी ; वे धड़ल्ले से उस घने जंगल में उनके बीच भी जाकर इंटरव्यूज और बाइट ले सकते थे, जिनके बीच एसपीजी और ब्लैककैट सुरक्षा वाले नेता या अफसर जाने की सोच भी नहीं सकते। उतनी ही बेबाकी से प्रशासन से भी उसका पक्ष जान लेते थे। सीआरपीएफ के एक जवान को माओवादियों से छुड़ाकर वापस भी ला सकते थे और सत्ता और माओवादियों की हिंसा के बीच पिस रहे आदिवासियों के दर्दों को भी दिखा सकते थे l। बस्तर के मामले में वे दिल्ली, कोलकता, चेन्नई सहित देश भर के सभी मीडिया संस्थानों और नामी पत्रकारों के भरोसेमंद स्रोत थे। एक ऐसे स्ट्रिंगर, जिनका न नाम कहीं लिखा जाता था, न उनके काम का कोई दाम ही उन्हें मिल पाता था।

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एक ठेकेदार ने उन्हें क़त्ल कर दिया ; नई साल की शाम लैपटॉप पर बैठने से पहले कुछ ताज़ी हवा लेने सिर्फ टी-शर्ट और शॉर्ट्स में जॉगिंग के लिए निकले थे, ठेकेदार ने उन्हें उठा लिया और निर्ममता के साथ मार डाला। तीन दिन बाद खुद पत्रकारों और उनके पत्रकार भाई यूकेश की पहल पर उनकी देह  बरामद हुई। उनके लैपटॉप पर मिली उनकी आखिरी लोकेशन के आधार पर उनके पत्रकार भाई बाकी पत्रकारों के साथ  ठेकेदार के ठीये तक पहुंचे। एक ताजे सीमेंट से चिने गए सैप्टिक टैंक में उनकी क्षत-विक्षत लाश मिली। पत्रकारों द्वारा बार-बार कहे जाने के बावजूद मौके पर मौजूदा पुलिस का एसपी उस सैप्टिक टैंक को खोलने के लिए राजी नही था, पत्रकारों और परिजनों ने खुद फावड़े उठाकर उसे खोला और मुकेश की देह उसमे तैरती मिली।

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जिस ठेकेदार के फार्म हाउस के सेप्टिक टैंक से यह लाश मिली है, वह कोई 132 करोड़ रूपये का मालिक बताया जाता है – इलाके का सबसे बड़ा ठेकेदार है। कुछ बरस पहले तक बावर्ची का काम करने वाले ये दोनों ठेकेदार भाई सुरेश और रीतेश चंद्राकर इतने बड़े वाले हैं कि दारिद्र्य बहुल बस्तर में उनके यहाँ जब शादी होती है, तो उसमें घोड़ी या बीएमडब्लू नहीं आती, हैलीकोप्टर आता है। निडर पत्रकार मुकेश चन्द्राकर ने ऐसी ही एक शादी की खबर कुछ साल पहले कवर की थी ; उनके पोर्टल बस्तर जंक्शन पर मिल जायेगी। मुकेश की ताज़ी रिपोर्ट, जिसे 25 दिसम्बर को एनडीटीवी ने प्रमुखता से दिखाया था,  उस भ्रष्टाचार की थी, जिसमें इस ठेकेदार को  56 करोड़ की सड़क बनाने के ठेके को बिना किसी वजह के 120 करोड़ किये जाने और उसके बाद कोई सौ करोड़ का भुगतान एक ऐसी सड़क के लिए कर दिए जाने का मामला था, जो बनी ही नहीं थी, जितनी बनी बताई गयी थी, वह और भले कुछ भी हो, सड़क तो नहीं ही थी।

यह निर्मम हत्या और उसके बाद हुए पोस्टमोर्टम की रिपोर्ट पत्रकार की हत्या या पोस्टमॉर्टेम रिपोर्ट नहीं है, यह धीरे-धीरे मौत के घाट उतारे जा रहे बस्तर की पोस्टमोर्टेम रिपोर्ट है। 

उनके चैनल के नाम की तरह बस्तर सचमुच में एक जंक्शन बना हुआ है। एक ऐसा जंक्शन, जहां के सारे मार्ग वहाँ के आदिवासियों और नागरिको के लिए बंद हैं। माओवाद का हौवा खडा करके लोकतंत्र की तरफ जाने वाली पटरियां इतने लम्बे समय से ब्लॉक हैं कि उन पर खाकी और हरी वर्दियों की खरपतवार दीवारें बनकर तन चुकी है। कानून के राज की तरफ जाने वाली पटरियां उखाड़ी जा चुकी हैं। संविधान नाम की चिड़िया बस्तर से खदेड़ी जा चुकी है। अब सिर्फ एक ही तरफ की लाइन चालू है : आदिवासियों की लूट, महिलाओं के साथ अनाचार की अति और जुल्म तथा  अत्याचार की पराकाष्ठा की कालिख में डूबी पटरी वाली लाइन। यह एक ऐसी पटरी है, जिस पर सिर्फ अडानी जैसे कारपोरेट की आवाजाही हो, यह सुनिश्चित करने के लिए दिल्ली और रायपुर की सरकारें मनुष्यता और सभ्यता का हर मानदंड तोड़ने के लिए हाजिर हैं। ये धनपिशाच बस्तर की जमीन पर उगे घने और अनोखे जंगल, उसके नीचे दबे अनमोल खनिजों को हड़प सकें, उसके खिलाफ आवाज उठाने वालों को बेहिचक क़त्ल कर सकें, इसके लिए कितना भी नीचा गिरने के लिए तत्पर हैं। यह काम वर्दी और बिना वर्दी के किया जाता रहा है। इतने पर भी सब्र नही होता, तो नकली पुलिस के असली शिकंजे कसे जाते रहते हैं। जिस ठेकेदार के फ़ार्म हाउस से मुकेश चन्द्राकर मिले हैं, वह ऐसी ही फर्जी, दमनकारी और असंवैधानिक गुंडा वाहिनी सलवा जुडम का एसपीओ - विशेष पुलिस अधिकारी - रह चुका था। ये गिरोह क्या करता रहा होगा, इसकी जीती जागती मिसाल है इसकी कमाई और बर्बरता। इस हत्यारे को आज भी पुलिस सुरक्षा मिली है - यहाँ का एसपी इसके अस्तबल में बंधा है, इतनी वफ़ादारी के साथ कि उस सैप्टिक टैंक को भी खोलने को राजी नहीं था, जिसमे बाद में लाश बरामद हुई।

मगर यह सिर्फ अफसरों तक सीमित बात नहीं है, हत्यारा ठेकेदार भाजपा से जुड़ा है ; इससे पहले वह कांग्रेस में भी रहा है। दिल्ली से रायपुर तक कितनी भी नूरा कुश्ती हो ले, बस्तर में मलाई में साझेदारी पूरी है। निहित स्वार्थ इतने गाढ़े हैं कि सरकार तिरंगी हो या दोरंगी, न पत्रकारों की सुरक्षा का क़ानून बनता है, न अडानी-अम्बानी के लिए आदिवासियों को रौंदा जाना रुकता है। आंदोलनों के बाद दो साल पहले बमुश्किल बना पत्रकारों की रक्षा का आधा-अधूरा कानून अभी भी लागू होने की तारीख के इन्तजार में है।

इसमें बड़ा और बड़े होते हुए कारपोरेट बना या उसका सगा मीडिया भी कम शरीके जुर्म नहीं है। 1 जनवरी, ठीक जिस दिन मुकेश की हत्या हुई, उस दिन खुद को सकल ब्रह्मांड का सबसे बड़ा अखबार मानने वाले 'दैनिक भास्कर' ने एक पूरे पेज की खबर छापी और इस ठेकेदार को बस्तर का भाग्यविधाता, निर्माता और न जाने क्या-क्या साबित कर मारा। दाम लेकर इधर इनने पत्रकारिता दफन की, उधर भ्रष्टों का हौंसला इत्ता बढ़ा दिया कि उसी शाम उन्होंने मुकेश को मारकर दफ़न कर दिया। पीत पत्रकारिता और पतित पत्रकारिता पहले दो अलग अलग चीजें हुआ करती थीं। आजकल वर्चस्व बनाए बैठे मीडिया संस्थानों ने इनका यौगिक बना दिया है। 

बस्तर मकतल बना हुआ है। जब पत्रकारों की यह दुर्दशा है, तो आदिवासियों की स्थिति की तो कल्पना भी नहीं की जा सकती। दक्षिण बस्तर, खासकर बीजापुर और उसके आगे उनके गाँवों और बसाहटों की ओर जाने वाली सड़कों पर हर ढाई किलोमीटर पर सीआरपीएफ कैम्प  पुलिस छावनियां और थानों का जाल बिछा हुआ है। ये क्या करते है? किसके लिए तैनात रहते हैं? इसके अनगिनत उदाहरण हैं, यहाँ सिर्फ तीन पर ही निगाह डाल लेते हैं।

पहला सिलगेर है। सिलगेर बस्तर का अब तक का सबसे बड़ा, लंबा और पूरी तरह शांतिपूर्ण आदोलन है, जो साढ़े तीन साल से चल रहा है। 11 मई 2021 की रात को बगैर ग्रामीणों  की सहमति के एक सीआरपीएफ कैंप बना दिया गया, जो अनुसूचित क्षेत्रों के लिए पंचायत विस्तार अधिनियम (पेसा) 1996 के तहत पूरी तरह अवैध था। इसके विरोध में बीजापुर के नजदीक सुकमा जिले के सिलगेर में  कोई 20 हजार आदिवासी स्त्री-पुरुष इकट्ठा हुए थे। पहाड़ियों पर दूर-दूर बसे, किसी भी तरह के आधुनिक परिवहन से वंचित छोटे गाँवों के हिसाब से यह संख्या बहुत ज्यादा थी। आदिवासी यह मांग करने के लिए इकट्ठा हुए थे कि हर ढाई किलोमीटर पर सीआरपीएफ कैम्प–पुलिस छावनियां और थानों का जाल बिछाने के बजाय हर ढाई किलोमीटर पर स्कूल और अस्पताल बनाने चाहिए, ताकि मलेरिया और कुपोषण जैसी टाली जा सकने वाली हजारों मौतों से आदिवासियों को बचाया जा सके।  उनकी संतानें पढ़-लिख सकें। बस्तर की खनिज और वन संपदा का निर्दयता से दोहन करने और बस्तर को आदिवासी और परम्परागत वनवासी विहीन बनाने के लिए फोर-सिक्स लेन हाईवे की बजाय उनके गाँवों तक छोटी सड़कें बिछाई जाएँ। मगर बजाय उनकी सुनने के, बिना किसी वजह के सीआरपीएफ आयी और उसने चार आदिवासी मार डाले। इनमे चार युवा उयका पांडु, कोवासी वागा, उरसा भीमा, मिडियम मासा, गर्भवती युवती पूनेम सोमली और उसका गर्भस्थ शिशु शामिल था। धरना चलते-चलते जब कोई दो साल गुजर गए तब जाकर,  तब की भूपेश बघेल के मुख्यमंत्रित्व वाली कांग्रेस सरकार ने 9 विधायकों और एक सांसद का दल चर्चा के लिए भेजा। आदिवासियों ने अपनी व्यथा सुनाई, मांगे दोहराईं। दल ने उनसे वादा किया कि वे मुख्यमंत्री से इन पर  कार्यवाहियां करवायेगे। दल रायपुर लौट आया, भूपेश बघेल भूतपूर्व हो गये, आदिवासी आज भी इन्तजार में बैठे हैं।

दूसरा सारकेगुड़ा हत्याकाण्ड है। 28 जून 2012 की रात सुरक्षाबलों ने बीजापुर जिले के सारकेगुड़ा गांव में 17 आदिवासी ग्रामीणों को माओवादी बताकर गोलियों से भून डाला था। इस दौरान गांव वालों की ओर से किसी प्रकार की गोलीबारी नहीं की गई थी। ग्रामीणों के मुताबिक मारे गए लोग नक्सली नहीं थे, वे अपना पारंपरिक त्योहार बीज पंडुम मना रहे थे। इन मौतों को लेकर तत्कालीन राज्य सरकार ने एक सदस्यीय जांच आयोग का गठन किया था। इस एक सदस्यीय जांच आयोग के अध्यक्ष जस्टिस विजय कुमार अग्रवाल बनाए गए। करीब सात साल की सुनवाई के बाद यह रिपोर्ट मुख्यमंत्री को सौंपी गई। इस रिपोर्ट के मुताबिक भी मारे गए लोग नक्सली नहीं थे, सभी बेकसूर ग्रामीण आदिवासी थे। उन्हें पुलिस बलों ने बिना किसी उकसावे या वजह के यूं ही मार डाला था। जब हत्याएं हुई, तब भाजपा सरकार थी, रिपोर्ट आई तब कांग्रेस थी, अब फिर भाजपा राज में हैं ; जांच रिपोर्ट के आधार पर कोई कार्यवाही न तब हुई, न अब हो रही है।

तीसरा उदाहरण एडसमेटा का है। इसी तरह का हत्याकांड 17-18 मई 2013 की रात में बीजापुर के एडसमेटा गांव में हुआ। यहां भी ग्रामीण आदिवासी त्यौहार बीज पंडुम मनाने के लिए जुटे हुए थे। तभी नक्सल ऑपरेशन में निकले जवानों ने ग्रामीणों को नक्सली समझ कर गोलीबारी कर दी थी। इस गोलीबारी में चार नाबालिग समेत कुल आठ लोग मारे गए थे। इसकी जांच के लिए बनी मध्यप्रदेश हाईकोर्ट के पूर्व न्यायाधीश न्यायमूर्ति वीके अग्रवाल की कमेटी ने इस हास्यास्पद तर्क कि यह घटना “सुरक्षा बलों द्वारा ग्राम एडसमेटा के समीप आग के इर्द—गिर्द एकत्रित हुए व्यक्तियों को देखने के बाद उन्हें संभवत: गलती से नक्सली संगठन के सदस्य समझकर घबराहट की प्रतिक्रिया के कारण गोलियां चलाने से हुई है।” के बाद यह भी माना कि “मारे गए सभी लोग ग्रामीण थे। उनका नक्सलियों से कोई कनेक्शन नहीं था।” कार्यवाही इस रिपोर्ट पर भी नहीं हुई।   

इस तरह की मौतें-हत्याएं कभी कम, तो कभी बड़ी संख्या में लगातार जारी हैं। माओवाद का हौआ इस तरह की ज्यादतियों और हत्याओं के लिए आड़ मुहैया कराता है, आदिवासी अवाम इन दोनों पाटों के बीच पिस रहा है। मुकेश चंद्राकर जैसे पत्रकार इसे उजागर करते है, तो मार डाले जाते हैं। अब तो अडानी बस्तर आ रहे हैं ; हसदेव तक वह पहुँच ही चुके, अब उसे पूरे का पूरा बस्तर और छत्तीसगढ़ चाहिए। आसानी के साथ ऐसा हो सके, इसके लिए मरघट की शान्ति भी चाहिए। यह सब कुछ उसी शान्ति के लिए बस्तर को मरघट में बदलने की परियोजना है।  

'बस्तर जंक्शन' वाले मुकेश चंद्राकर इसी शान्ति को हासिल करने का उदाहरण है ; स्थगित संविधान वह सैप्टिक टैंक था, जिसमे उनकी टूटी-फूटी देह मिली, निलंबित  लोकतंत्र वह सीमेंट था, जिससे इस टैंक को सील किया गया था। वे कार्पोरेट्स के मुनाफे की एकतरफा आवाजाही वाली पटरी पर कुचल दिए गए युवा हैं। यह एक ऐसा बर्बर हत्याकाण्ड है, जिसे एक व्यक्ति, एक युवा पत्रकार तक सीमित रहकर देखना खुद को धोखा देना होगा ; यह एक पैकेज का हिस्सा है, यह पूरे बस्तर की यातना है, यह एक ऐसे घुप्प अन्धेरे का फैलना है, जिसे यदि रोका नहीं गया तो कल न छत्तीसगढ़ बचेगा, न देश!!

(लेखक 'लोकजतन' के संपादक और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं। संपर्क : 94250-06716)


 

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