नगपुरा। प्रभु महावीर की प्रथम देशना श्री आचारांग आगम ग्रंथ का गहन विवेचन करते हुए साध्वी श्री लब्धियशाश्रीजी ने श्रद्धालुओं को आत्म कल्याण की प्रेरणा दी। उन्होंने कहा कि प्रभु ने कषाय त्याग के माध्यम से दुःख से मुक्ति का उपाय बताया है। क्रोध, मान, माया और लोभ – ये चारों ही कषाय आत्मा को अशुभ कर्मों में बांधकर उसे दुःख की दलदल में फंसा देते हैं।
साध्वीजी ने कहा कि जो साधक क्रोध को क्षमा और मान को नम्रता द्वारा जीत लेता है, वही शाश्वत सुख की ओर अग्रसर होता है। माया को सरलता और लोभ को संतोष से शांत किया जा सकता है। उन्होंने कहा कि भारतीय संस्कृति में भोग नहीं, बल्कि त्याग को महत्व दिया गया है।
उन्होंने लोभ को “पाप का बाप” करार देते हुए कहा कि लोभी व्यक्ति असत्य, हिंसा जैसे दोषों का आश्रय लेने से भी नहीं डरता। व्यक्ति जब लोभ से प्रेरित होकर पदार्थों के संचय में लग जाता है, तब वह आत्मिक पतन की ओर बढ़ने लगता है। प्रभु महावीर ने इच्छाओं को आकाश की तरह अनंत बताया है, क्योंकि पदार्थों की प्राप्ति के साथ इच्छाएं और बढ़ती जाती हैं। इसका अंत केवल संतोष के गुण को आत्मसात करने पर ही संभव है।
साध्वी जी ने कहा कि लोभ एक मानसिक विकार है, जो व्यक्ति के चारित्रिक पतन का कारण बनता है। लोभी व्यक्ति अपने स्वाभिमान को भूलकर दूसरों के आगे झुक जाता है और चाटुकारिता की राह पकड़ लेता है। वह किसी से कुछ पाने की आशा में अपना सब कुछ खो बैठता है।
उन्होंने कहा कि लोभ चाहे पद का हो, राजनीति का हो, धन का हो, वासना या यश की प्राप्ति का – हर रूप में यह विनाश का कारण बनता है। लोभ एक क्षणिक प्यास की तरह है, जिसकी पूर्ति के लिए मनुष्य अनैतिक और अधार्मिक आचरण कर बैठता है और आत्मकल्याण के मार्ग से भटक जाता है।
प्रवचन के माध्यम से साध्वी लब्धियशाश्रीजी ने सभी आराधकों को आत्म शुद्धि, कषायों से मुक्त जीवन और संतोष के गुण को अपनाने की प्रेरणा दी।
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