छत्तीसगढ़

"क्या भारतीय सांस्कृतिक सोच के साथ भारत का विकास संभव नहीं"?

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एमसीबी / मनेन्द्रगढ़ (बीरेन्द्र श्रीवास्तव की कलम से)। भारतवर्ष का इतिहास और संस्कृति हमारे उच्च मूल्यों  और आदर्श का भंडार रही है जिसकी कहानी ऐतिहासिक पन्नों में और बुजुर्गों के स्मृति पटल से किस्सा- गोई के रूप मे कहानियो के रुप मे ढलकर  बच्चों की सांस्कृतिक विरासत सौंपने की शिक्षा और मनोरंजन का माध्यम रही है लेकिन समय के बदलाव ने हमें अपने विकास के लिए यूरोपियन संस्कृति का पिछलग्गू बना दिया है. यूरोपियन संस्कृति के हर पक्ष को विकास का पैमाना मान लेना उचित नहीं है. देश के विकास के आंकड़े तय करते समय हमें इस पर एक बार चिंतन जरूर करना होगा. जब हम बुजुर्गों की बात करते हैं तब सहसा संयुक्त परिवार का टूटना  हमारी चिंता में शामिल होती है जो इस देश की सांस्कृतिक विरासत का एक सशक्त पहलू रहा है. जो हमारे बीच से धीरे-धीरे गुम होता जा रहा है. परिवार की परिभाषा भी समय के अनुसार बदली है जिसमें पति-पत्नी और बच्चों की गिनती तो शामिल है किंतु दादा दादी का नाम धीरे-धीरे विलुप्त होता जा रहा है चाचा- चाची जैसे शब्द अब समाप्त  हो चुके हैं भारतीय संस्कृति के पन्नों से विलुप्त होते हुए इस विलोपन पर हमें चिंता  करनी होगी और पूनर्मूल्यांकन करना होगा. जब संयुक्त परिवार ही नहीं रहेंगे तब अंग्रेजों की तरह हमारे आत्मिक संबंधों की परिभाषा में गढ़े गए शब्दों के अर्थ अंग्रेजी की तरह ही धीरे-धीरे समाप्त हो जाएंगे जिसमें दादा दादी और नाना नानी मौसा मौसी जैसे शब्द शामिल है अंग्रेजी में चाचा और मामा के लिए एक ही शब्द अंकल का प्रयोग होता है जबकि परिवार में चाचा का नाम एक दायित्व का बोध कराता है वहीं मामा हमारे घर के आंगन में एक विशिष्ट अतिथि का दर्जा प्राप्त करते हैं मामा का आगमन बच्चों के लिए खुशियों की नई पहचान का दिन होता है अपनी सामर्थ्य के अनुसार उनके द्वारा लाए गए तोहफे बच्चे जीवन भर याद रखते हैं उनके स्नेह और प्रेम से भरे इस  समर्पण के इन उपहारों का कोई मूल्य नहीं रखा जा सकता है,  इसे केवल महसूस किया जा सकता है.  मुझे आज 70 वर्ष की उम्र में भी अपने मामा द्वारा मिट्टी के मटके में लाए गए नए चावल के आटे से बने गुड़ की पाग से बने रसगुल्ले की सोच आज भी जीभ का स्वाद बदल देती है. पैकिंग की दुनिया से दूर ग्रामीण परिवेश मेंअपने  खेती में बना घरेलू चूड़ा और बाजरे की लाई अब केवल कहानियों के अंश बनकर शेष रह गए हैं. इसी तरह दादा-  दादी की स्मृतियों में बसी कहानियों के पात्र देश राज्य की सीमाओं से बाहर जाकर उन योद्धाओं की गाथाओं से सराबोर होती थी जो एक न्यायिक लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए लड़ते थे.  और विजय प्राप्त करते थे. राजा रानी की कहानी केवल राजसी  ठाट-बाट के वर्णन का सिलसिला नहीं होता था बल्कि उन कहानियों में भी धर्म और न्याय के विरोधियों का नाश और अच्छाई तथा न्याय को पाने के संघर्ष का वर्णन होता था.  पुराने हाट- बाजार में "किस्सा रानी गुल बकावली का" जैसी 10 पन्नों की पुस्तकों में भी यह दादा-दादी की कहानी कभी-कभी पढ़ने को मिल जाया करती थी लेकिन आज दूरदर्शन एवं टेलीविजन संस्कृति ने इस पर ग्रहण लगा दिया है जो कभी उन्मोचन के बाद आ सकेगी इसकी उम्मीद भी अब कम दिखाई देती है.
                  इन्हीं कहानियों में भारत के गौरवपूर्ण इतिहास के कई पन्ने समाहित है हमारे देश में हमारी सात्विक एवं शुद्ध खेती की परंपरा रही है. सुगंधित चावल देने वाले धान की बालियाँ जब खेतों में फूलती थी तब एक मील दूर से लोगों को पता चल जाता था कि विष्णु भोग या श्रीकँवल धान की फसल अब फूलने लगी है.  अब इस तरह की खेती कहां चली गई पता नहीं. हम इसके बीज संरक्षण की ओर भी ध्यान नहीं दे पा रहे हैं.  हाइब्रिड  (वर्णसंकर) बीजों ने अब मूल बीजों को समाप्ति के कगार पर खड़ा कर दिया है अब कृषि विकास केन्दो या शासकीय कृषि बीज भंडार  कार्यालय में भी यह बीज उपलब्ध नहीं है. हम इस दिशा मे क्यों नहीं सोच रहे हैं क्या इसकी आवश्यकता नहीं  रही.  हमारी सांस्कृतिक धरोहर का यह हिस्सा अब धीरे-धीरे खेतों से समाप्त हो रहा है इसकी ओर कोई सामाजिक या शासकीय संस्थान ध्यान क्यों नहीं दे रहे है. आर्थिक लाभ और अधिक उत्पादन की सोच ने  हमारे इस बीच को रसोई से बाहर कर दिया है और पौष्टिक एवं सुगंधित अनाज की चाहत  हमारी सामाजिक और सांस्कृतिक पहचान से समाप्त हो रही है. क्षेत्र विशेष के अन्य पैदावार की अपनी पहचान अब बीते दिनों की बातें हो गई है इसी तरह मोटे अनाज साँवा, कोदो , कुटकी, मेंंझरी, भी हमारी खेती से अब समाप्त हो गई है. बढ़ती अस्वस्थता, मोटापा एवं शारीरिक रोंगों द्वारा काफी कुछ नष्ट हो जाने के बाद अब इस दिशा में सोच शुरू हुई है और इसके उत्पादन की ओर अब किसानों को प्रोत्साहित किया जा रहा है. यह  शुरुआत देर से सही पर अच्छी शुरुआत कहीं जा सकती है.
          ...    


 हमारे देश में खेती करने वाले को ऐतिहासिक पन्नो  में प्रथम दर्जे का स्थान दिया गया था "उत्तम खेती मध्यम बान, अधम्  नौकरी भूख निदान" 
की कहावत आज परिवर्तित हो गई है आज के यूरोपीय  भौतिकवादी युग में हम जीवन की मानसिक शांति, स्वस्थ्य मस्तिष्क, के साथ साथ सामाजिक संबंधों की चेतना एवं शरीर के लिए आवश्यक उत्तम भोजन के  हर पक्ष को भौतिक मुद्रा में  तौल रहे हैं.  बदलते समय में मुद्रा से संपन्न व्यक्ति सामाजिक जीवन का हर पक्ष खरीदने का दावा करता है यह अलग पक्ष है कि वह अपनी सामाजिक जीवन एवं स्वास्थ्य की दृष्टि से स्वयं कितना सक्षम है इस दिशा में उसका ध्यान नहीं जाता.  उत्तम खेती का किसान आज हासिये पर आ चुका है.  जीवन का आधार हवा पानी एवं भोजन की मुख्य इकाई भोजन को इस देश की सांस्कृतिक दर्शन में महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है. अपने भोजन की थाली में

से प्रथम भोग अन्न देवता को उसके बाद देवी देवताओं को प्रसाद का भोग लगाकर धन्यवाद देने की परंपरा इस देश में रही है. प्रार्थना दान आतिथ्य भोजन जैसे ऊंचे आदर्शों की हमारी रसोई का अपने घरों से समाप्त हो जाना या सिमट कर होटलों पर निर्भर हो जाना आज बहुत बड़ी  चिंता का विषय है. जो हमारे स्वास्थ्य के साथ-साथ हमारी सामाजिक विरासत और सांस्कृतिक पहचान को समाप्त कर रहा है. यह आज की बहुत बड़ी चिंता का विषय है सच मानिए यह हमारी सांस्कृतिक विरासत का हिस्सा नहीं है घर जैसा खाना , मां की रसोई,  चटकारे का स्वाद , जैसे स्लोगन होटल की बिक्री बढ़ाने के लिए उपयोगी हो सकते हैं लेकिन घर की रसोई का स्थान कोई नहीं ले सकता.
                    भारत की इसी सांस्कृतिक धरोहर का हिस्सा रहा है रसोई में बने भोजन हेतु बैठने से पहले अतिथि सत्कार की परंपरा या किसी याचक को भोजन कराने की परंपरा.   कहते हैं काशी (रामनगर) जिसे बनारस भी कहा जाता है यह भारत की आध्यात्मिक कर्मकांड के सांस्कृतिक धरोहरों का केंद्र रहा है.  हिंदू संस्कृति की कर्मकांड की शिक्षा आज भी बनारस में ही दी जाती है.  आध्यात्मिक पूजा पाठ एवं आपके घरों में शादी- विवाह ,ग्रह शांति, उत्सव , संस्कार एवं शुभ अवसरों   के पूजा पाठ करते हुए जो  ब्राह्मण दिखाई पड़ते हैं वह अपनी शिक्षा इसी बनारस के सांस्कृतिक केंद्र से प्राप्त कर शास्त्री जी कहलाते हैं.  इस सांस्कृतिक केंद्र काशी के राजा महाराजा विभूति नारायण सिंह के बारे में कहा जाता है कि वह भोजन हेतु बैठने से पूर्व किसी अतिथि या याचक को भोजन कराने के बाद ही स्वयं भोजन ग्रहण करते थे.  उनके इस पारंपरिक व्यवहार से  स्वतंत्र भारत के प्रथम तत्कालीन गृहमंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल परिचित थे. भारत गणराज्य में बनारस अर्थात काशी रियासत को मिलाने के लिए महाराज के भोजन के पूर्व याचक बनकर गृहमंत्री  उनके महल में पहुंचे और  काशी महाराजा विभूति नारायण सिंह को संदेश भिजवाया कि आपसे कुछ मांगने की इच्छा लेकर कोई याचक आपके पास  आया है. भोजन से पूर्व पहुंचने वाले इस याचक से मिलने जब महाराज बाहर निकले तब सरदार वल्लभभाई पटेल जी ने उन्हें अपनी रियासत को भारत गणराज्य मे शामिल करने का निवेदन किया और काशी नरेश ने इस याचक की याचना को सहज ही स्वीकार कर लिया  उन्होंने  माननीय सरदार  वल्लभभाई पटेल को कहा कि आप मेरे भोजन से पूर्व याचक बनकर आए हैं मैं आपको खाली हाथ वापस कैसे भेज सकता हूं.और उन्होंने अपने संकल्प के अनुसार 15 अक्टूबर 1948 को भारत गणराज्य में अपनी रियासत काशी अर्थात बनारस को विलीन करने के लिए संधि पत्र पर हस्ताक्षर कर दिए, ऐसी उच्च विरासत एवं उच्च परंपराओं का  यह देश रहा है.  जिससे अभिभूत  इस देश का बच्चा-बच्चा आज भी अपने देश और सांस्कृतिक विरासत को  नमन करता है.
           ...    
आज के व्यस्त जीवन एवं पति-पत्नी दोनों की नौकरी की व्यस्तता हमारी रसोई को निगल रही है उसका स्वरूप अब बदल रहा है. मां के हाथों बने भोजन में मां के हाथों का प्यार अब नहीं रहा.  पत्नी का अपनत्व भरा एक और रोटी ले लेने का मनुहार खत्म हो गया है.प्रेम और आत्मीयता से भरी हमारी रसोई पर यूरोपियन संस्कृति का ग्रहण लग चुका है.  हमारे शरीर को स्वस्थ रखने की प्रयोगशाला हमारी रसोई भी अब धीरे-धीरे कीटनाशकों की चपेट में आती जा रही है क्योंकि यहां आने वाले अन्न, दालें और सब्जियों में कीटनाशकों का बढ़ता प्रयोग अब हमारी रसोई में भी पैर फैलाना शुरू कर चुका है शायद आप इस बात से परिचित न हो कि आपकी रसोई या होटल में बनने वाले भजन की पौष्टिकता 45% तक काम हो चुकी है ज्यादा खाने के बाद भी आपके शरीर को वह ताकत नहीं मिल रही है जो उसके लिए आवश्यक है जिंक आयरन नाइट्रोजन जैसे बहुत सारी आवश्यक तत्व हमें अपने भोजन से नहीं मिल पा रहे हैं क्योंकि हमने रासायनिक खाद डालकर  इसे खेतिहर जमीन से समाप्त कर दिया है. यह बहुत बड़ी चिंता का विषय है बदलते समय के अनुसार हमें अपनी रसोई को बचाकर रखना होगा.  हमारे मसाले और हमारे पकवान हमारे स्वास्थ्य की चिंता करते हैं.  ऐसे समय पर हमें अपनी रसोई की चिंता करनी होगी. यह तय है कि हम अपनी रसोई में अपने परिवार के स्वास्थ्य को ध्यान में रखकर ही भोजन तैयार करेंगे, जिसमें शामिल होगा, मां का प्यार, भाई बहनों के कौर की लूट , दादा दादी का स्नेह और पत्नी का मनुहार भरा एक रोटी और ले लेने का आमंत्रण....। 

बस इतना ही, फिर मिलेंगे अगले चिंतन पर....
 
                   
     

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