नगपुरा/ दुर्ग। " अभिमानी व्यक्ति अभिमान को पुष्ट करने के लिए माया का प्रयोग करता है। प्रायश्चित आत्म शुद्धि का विधान है। विवेकहीन मनुष्य पशु समान है। जीवन का उद्देश्य मानव से महामानव बनने का होना चाहिए। पदार्थ की लालसा संसारभ्रमण का कारण बनता है। पदार्थों के प्रति अनासक्ति संसार से मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करता है। संसार असार है, निरंतर सरकते रहना, निरंतर रंग बदलते रहना, संसार है! मनन करने मात्र से रक्षा करें, त्राण करें, वह मंत्र है। संसार सागर में गिरते जीव को बचायें वह धर्म है।" उक्त उद्गार श्री उवसग्गहरं पार्श्व तीर्थ नगपुरा चातुर्मास प्रवचन माला में श्री आचारांग सूत्र की विवेचना करते साध्वी श्री लब्धियशा श्री जी म० सा० ने व्यक्त किए।
संसार भ्रमणा के मुख्य कारण कषाय की व्याख्या करते हुए उन्होंने कहा कि 'कषाय’ शब्द जैन दर्शन में बहुत व्यापक रूप से प्रयोग किया गया शब्द है तथा जैन दर्शन के मूल कर्म-सिद्धांत से सम्बंध रखता है। साधारण भाषा में कहें तो कषाय शब्द से तात्पर्य है मन में उठने वाले विकार जो चित्त को विकृत करते रहते हैं। जैन दर्शन के अनुसार मन के असंख्य विकार होने पर भी सभी विकारों का अंतर्भाव चार विकारों में हो जाता है। वे हैं- क्रोध, मान, माया, लोभ। ये विकार प्रायः सभी प्राणियों में पाए जाते हैं तथा कर्म बंधन और उसके फलस्वरूप संसार में परिभ्रमण का मूल कारण हैं।
कषाय शब्द दो शब्दों से बना है - कष तथा आय। कष का अर्थ है संसार तथा आय अर्थात कमाई या आमदनी। कषाय मन के वे विकार हैं जिनके द्वारा प्राणी को संसार की आमदनी होती है अर्थात जो प्राणी के संसार को बढ़ाते हैं। कषाय भवभ्रमणा को बढ़ाते हैं,संसारभ्रमणा को बढ़ाते हैं । क्रोध, मान, माया, लोभ रूपी चार कषाय के कारण कर्म-बंधन होता है और कर्म बंधन के कारण संसार का आवागमन चलता रहता है।
विकारों की तीव्रता के अनुसार अनंत कर्मों का बंध करवाते हैं तथा अनंत काल तक संसार में भटकाते हैं। कषाय में मरने वाला प्राणी नरक गति में जाता है। यदि व्यक्ति कषायों को जीत लेता है तो वह नए कर्म नहीं बाँधता।
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