नगपुरा। " मनुष्य जन्म दुर्लभ है। पूर्व संचित पुण्य के परिणाम स्वरूप यह जीवन हमें मिला है। हम संचित पुण्य का इस जीवन में व्यय कर रहे हैं। जीवन में जो आध्यात्मिक शक्ति या भौतिक सुविधा प्राप्त हुआ है, वह पूर्व संचित पुण्य का प्रतिफल है,धर्म आराधना करने से पुण्य टिका रहता है। मानव जीवन का उद्देश्य संचित पुण्य में अभिवृद्धि का होना चाहिए ! पुण्य को बढ़ाने का माध्यम धर्म है और धर्म की विशुद्ध आराधना मनुष्य जीवन में ही संभव है। उक्त उद्गार श्री उवसग्गहरं पार्श्व तीर्थ नगपुरा चातुर्मास प्रवचन माला में साध्वी श्री लक्ष्ययशा श्री जी म० सा० ने व्यक्त किए।
उन्होंने कहा कि धर्म मनुष्य को अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाता है। धर्म विहिन जीवन पशुतुल्य है। धर्म ही हमारा सच्चा साथी है, जो कभी धोखा नहीं देता ! जीवन में यदि किसी पर विश्वास करना है तो -वह धर्म पर। उन्होंने प्रवीण भाई देसाई बेगलोर का उदाहरण देते हुए बतलाया कि परमात्मा की भक्ति नास्तिक व्यक्ति को आस्तिकता के उच्च शिखर तक पहुंचा देता है! आत्मा की शुद्धि के लिए परमात्मा की भक्ति सशक्त माध्यम है ।
श्री आचारांग आगम प्रवचन..
प्रभु श्री महावीर की देशना श्री आचारांग आगम ग्रंथ पर प्रकाश डालते साध्वी श्री आज्ञायशा श्री जी म सा ने बतलाया कि मानव जीवन विकारों से युद्ध करने का अवसर है । विकार और संस्कार ये दोनों मनुष्य जीवन के अत्यंत महत्वपूर्ण पहलू हैं। व्यक्ति के हृदय में जब विकारों का वर्चस्व बढ़ जाता हैं, तब उसमें पाशविक चेतना बढ़ जाती हैं। जब संस्कारों का प्रभाव बढ़ता हैं तब दैवीय गुण प्रगट होने लगते हैं। विकारों के उपशमन द्वारा साधक अपने जीवन में संस्कारों का सूर्योदय कर सकता है। प्रभु श्री महावीर स्वामी के उपदेशों को सुन इंद्रभूति गौतम , सुधर्मा स्वामी आदि विद्वानों ने अपनी अंतर्चेतना को विकारों से मुक्त किया और गणधर बनकर आत्मकल्याण किया।
जंबू स्वामी जैसी अनेक महान विभूतियों ने अपार भौतिक ऐश्वर्य का त्यागकर प्रभु द्वारा बताये संयम जीवन को अंगीकार आत्मकल्याण किया, स्वयं के साथ औरो के लिए आत्मकल्याण और शाश्वत सुख का मार्ग प्रशस्त किया। विकार आत्मा के मुलभूत सद्गुणों को नष्ट कर देने का कार्य करता हैं लेकिन साधक अपनी साधना की शक्ति द्वारा संस्कारों के शस्त्रों का संबल लेकर विकारों को संपूर्णतया परास्त कर देते हैं।
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