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आर्य समाज में सावन सत्संग: पेशंस रखिए नहीं तो पेशेंट बन जाएंगे: आचार्य डॉ. अजय आर्य

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भिलाई। आर्य समाज मंदिर सेक्टर 6 भिलाई में सावन सत्संग का आयोजन किया गया। 
कार्यक्रम के पूर्व चरण में आचार्य अंकित शास्त्री ने मंत्र उच्चारण किया। भजन, संध्या के पश्चात कार्यक्रम को आचार्य डॉ. अजय आर्य ने संबोधित किया।
वैदिक विद्वान आचार्य डॉ. अजय आर्य ने कहा कि जीवन में पेशेंस आवश्यक है । जो पेशेंस को खो देता है वह पेशेंट बन जाता है।जिसके पास धैर्य नहीं है वह धर्म को नहीं प्राप्त कर सकता यह धर्म के रास्ते पर नहीं चल सकता। धर्म का पहला लक्षण धैर्य है जिसे मनुस्मृति में धृति कहा गया है। अधीर व्यक्ति का जीवन इधर-उधर घूमता है और पहुंचता कहीं भी नहीं। ईश्वर की कृपा प्राप्त करने के लिए व्यक्ति को विश्वास करना पड़ता है जिसके जीवन में विश्वास है उसके जीवन में धैर्य अंकुरित होता है। इसीलिए जब आप डॉ. पर विश्वास करते हैं तो दवा जल्दी काम करती है। धर्म जानकारी नहीं है शास्त्रों का अध्ययन नहीं है विद्वान होना नहीं है। धर्म धारणा है। धर्म को धारण करना पड़ता है जीवन और व्यवहार में उतरना पड़ता है धर्म बाहर से नहीं अंदर से आता है। आर्य समाज के संस्थापक महर्षि स्वामी दयानंद सरस्वती ने इसीलिए बाह्य चिन्हों का बहिष्कार किया था। महर्षि स्वामी दयानंद सामान्य रूप से क्लीन सेव रहा करते थे।

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विशेष परिस्थितियों को छोड़कर के उनके सारे चित्र क्लिन सेव वाले ही उपलब्ध होते हैं। एक बार स्वामी जी एक नाई के पास अपने बाल कटवा रहे थे। जो लोग बाह्य चिन्ह को अधिक महत्व देते हैं, उन्हें लगता है कि बाल बढ़ा लेना भी धर्म का लक्षण है। ऐसे ही एक व्यक्ति ने जब स्वामी दयानंद को देखा तो उन्होंने कहा कि स्वामी जी आप सन्यासी हैं आप बाल कटवा रहे हैं। सन्यासी तो धार्मिक होता है सन्यासी तो तपस्वी होता है। तपस्वियों को बोल नहीं कटवाना चाहिए। स्वामी जी ने यह सुनकर के मुस्कान बिखेरी और कहा-अगर बाल को बढ़ा लेने से कोई व्यक्ति धार्मिक हो सकता है तो आप देखिए आपसे और हमसे ज्यादा बड़ा धर्मात्मा मदारी के पास बना जीव कहलाएगा। स्वामी जी ने दिखाया कि एक मदारी भालू को घुमा रहा है। हमें यह बात सुनकर की हंसी आती है लेकिन सच्चाई यही है कि हमने अपने जीवन में स्वयं को बदलने पर जोर नहीं दिया है। 
पंचतंत्र के आचार्य भी कहते हैं कि शास्त्रों को पढ़ने के बाद भी आदमी मूर्ख रहता है। जो शास्त्रों की बातों पर आचरण करता है वही विद्वान होता है। धर्म का लक्षण लिखते हुए महाभारत में कहा गया है कि जो व्यवहार आपके लिए प्रतिकूल है उसे दूसरों के लिए भी प्रतिकूल समझना और जो व्यवहार हमारे लिए अनुकूल है उसे दूसरों के लिए अनुकूल समझना ही धर्म है। हम सब लोग धर्म का अनुसरण कर रहे हैं। हम में से किसी को भी अपने लिए गाली पसंद नहीं है, अनादर और अपमान प्रसन्न नहीं है। हम सब चाहते हैं कि लोग हमसे प्रेम से बातकरें। मीठी वाणी का प्रयोग करें। बस जो जो चीज हम अपने लिए जाते हैं उसे दूसरों के लिए करना ही धर्म बन जाता है। धार्मिक बनने के लिए बहुत पढ़ने की जरूरत नहीं है। साधारण सा ज्ञान जब व्यवहार में उतरता है तो वह आपको असाधारण बना देता है। धर्म का मार्ग सरल है।
संस्कृत में शब्द आता है सेवा- सुश्रुषा सामान्य रूप से सभी लोग इसका एक ही अर्थ समझते हैं लेकिन संस्कृत में सुश्रुषा का अर्थ है सुनने की इच्छा करना। पहले घर में दादा-दादी नाना नानी हुआ करते थे। ताऊ हुआ करते थे । बुजुर्गों का घर में रहना होता था बच्चे उनसे कहानी सुनते थे। यह हमारे अभ्यास में होता था। जब आप सुनना सीख लेते हैं तो आपका धैर्य बढ़ता है एकाग्रता बढ़ती है। आज दादा दादी अलग होता पोती अलग। कुछ सुनने वाला नहीं कोई सुनने वाला नहीं। जीवन में सुनना जरूरी है। इसीलिए जब भी कोई विद्वान कोई बुजुर्ग आपके आसपास आए घर में आए उसकी सेवा कीजिए और उससे अधिक जरूरी है कि उन्हें सुनने की इच्छा मन में रखिए। जब आप बड़ों को सुनते हैं तो आपको अनुभव मिलता है, ज्ञान मिलता है, धैर्य मिलता है, धर्म का रास्ता मिलता है। 
कार्यक्रम का संचालन प्रवीण गुप्ता ने किया। कार्यक्रम में जवाहर सरपाल, प्रमिला सरपाल, वेद प्रकाश, जॉली थॉमस, आभा चौरसिया, धर्मपाल खंडूजा सहित अनेक गणमान्य लोग उपस्थित रहे।

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