शिक्षा सचिव से शिक्षकों ने किया खुला सवाल

शिक्षा सचिव से शिक्षकों ने किया खुला सवाल

दक्षिणापथ, रायपुर। राज्य स्तरीय वेबिनार में शिक्षा सचिव द्वारा शिक्षा की गुणवत्ता पर चिंता व्यक्त करते हुए पूरा दोषारोपण शिक्षको पर ही कर दिया गया, इससे शिक्षक नाराज है। साथ ही शिक्षकों का कहना है कि  शिक्षा सचिव द्वारा प्रयुक्त भाषा एवं शैली स्तरहीन है।
 शिक्षा को प्रभावित करने वाले बहुत से उत्तरदायी कारण है जिन पर गहन चिंतन होना चाहिए। केवल शिक्षक को दोषी ठहरा कर शिक्षा सचिव महोदय द्वारा केवल ठीकरा फोड़ने का कार्य किया जा रहा है। इससे गुणवत्ता सुधार कार्य में न तो समाधान मिले सकेगा और न ही ये उच्चाधिकारी अपने उत्तरदायित्वों से बच पाएंगे ।
शिक्षकों का शिक्षा सचिव से सवाल पूछा है। जब विभाग के द्वारा शिक्षक चयन की प्रक्रिया इतनी जटिल और पैनी बनाई है। हायर सेकंडरी, स्नातक, स्नातकोत्तर, डीएल एड, बी एड, फिर शिक्षक पात्रता परीक्षा (TET) परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद अभियर्थी शिक्षक बनने के काबिल होता है। कई स्तरों की पात्रता एवं योग्यता हासिल करने के पश्चात अभ्यर्थी कड़े कंपीटिशन की परीक्षा (व्यापम )  के बाद अभ्यर्थी लाखो के बीच से चुन कर शिक्षक बनता है। इसके बाद भी शिक्षकों को शिक्षा सचिव  द्वारा निकम्मा कहना निंदनीय है।
 शिक्षा विभाग के द्वारा स्कूलों नित नए प्रयोग कर कर के  प्रयोगशाला बना कर एनजीओ की चारागाह बना दी गई है। हर वर्ष शिक्षा में नए नए प्रयोग कर रहे है, किसी भी योजना में स्थायित्व नही है, शिक्षक और विद्यार्थी वर्ष भर भ्रमित रहता है कि उसे करना क्या है ? इसका दोषी कौन है शिक्षक या शिक्षा विभाग के आला अधिकारी?
शिक्षा की गुणवत्ता की औऱ प्राप्त दोष को दूर करने के लिए कितने कुशल और वरिष्ठ अधिकारियो नियुक्त किया गया है, जो शिक्षकों के साथ सामंजस्य बनाकर बाधाओं को दूर किया जा सके। शिक्षकों को अधिकारियों के द्वारा हतोत्साहित कर कैसे उच्च परिणाम की अपेक्षा की जा सकती है।  जब शिक्षा गुणवत्ता पर केंद्र से शिक्षा विभाग को पुरस्कार मिलता है  तब अधिकारी वाहवाही लुटती है, परन्तु जब रैंकिंग में छग पिछड़ी नजर आती है तो दोषी केवल शिक्षक को बनाया जाता है, क्यों?
प्रदेश भर के प्राथमिक से लेकर उच्चतर माध्यमिक तक के स्कूलों में 50 से अधिक एनजीओ को तैनात कर तरह तरह के हथकंडे अपनाया जा रहा है। केवल विभाग के उच्चाधिकारियों के द्वारा आपसी समन्वय बनाकर (सेटिंग) एनजीओ को स्कूलों में लगा दिया जाता है। इससे गुणवत्ता सुधरने के बजाय और बिगड़ती जा रही है। क्योंकि अलग अलग एनजीओ के अनुसार अध्यापन और कार्य करने का तरीका अलग अलग होता है, जो कि  शिक्षक और विद्यार्थी के मन मे कन्फ्यूजन पैदा करती है। स्कूलों में 70 से अधिक अभियान/ योजना/ गतिविधियां संचालित है। रोज कोई न कोई दिवस और पखवाड़ा मनाने हेतु निर्देश वाट्सअप से भेज दिया जाता है। चाहे वह स्कूलों से संबंधित हो या पंचायत से।
क्या कभी किसी शिक्षक या विद्यार्थियों से अभिमत लेकर स्कूलों में लागू किये जाने वाली कार्यक्रमो/योजना/अभियान को तैयार किया जाता है। शिक्षा विभाग के आला अधिकारियों के द्वारा बंद एयरकंडीशनर कमरों में यह तैयार किया जाता है। इसी लिए अधिकांश कार्यक्रम/योजनाएं/अभियान असफल होते है। भौगोलिक परिस्थितियां भी अलग अलग होती है। क्योंकि जो कार्यक्रम/योजनाएं/अभियान रायपुर और दुर्ग जिले में सफल हो सकती है वो बस्तर, बीजापुर, भोपालपट्टनम, सरगुजा में नही। क्या कभी विभाग के द्वारा कभी ऐसा सर्वे कराया गया है कि कितने शिक्षक वर्ष भर में गैर शिक्षकीय कार्य मे विभाग द्वारा संलग्न किये गए है। बीएलओ, टीकाकरण, जनगणना, पंचायत सर्वे आदि कार्यो में महीनों शिक्षकों को गैर शिक्षकीय कार्य मे झोंक दिया जाता है। उसके बाद गुणवत्ता कैसे आ सकती है। 
 शिक्षको को मिलने वाली समयबद्ध पदोन्नती तथा अन्य हितलाभों को क्या विभाग ने प्रदान किया है ? बिल्कुल नहीं, आज प्रदेश में लगभग 2500 प्राचार्यो के पद रिक्त है, 18 हजार प्रधान पाठक के पद रिक्त है, बहुत ही कनिष्ठ प्रभारियों के भरोसे विद्यालय संचालित है,  लगभग 80 प्रतिशत प्राथमिक विद्यालय बिना संस्था प्रमुख के संचालित है। क्या इससे शिक्षा की गुणवत्ता प्रभावित नही होती है। शिक्षा का मनोविज्ञान हमेशा साथ साथ चलता है,पदोन्नति यदि समय पर होती है तो शिक्षक बेहतर कार्य के लिए प्रेरित व प्रोत्साहित होता।
 प्राथमिक शिक्षा 1 से 8 में शिक्षा के अधिकार कानून के तहत यह उपबन्ध यद्धपि उचित था कि बच्चे को किसी कक्षा में न रोका जाए, उसे न्यूनतम स्तर तक लेकर कक्षोंन्ति दे दी जाए, लेकिन आज इसका विपरीत प्रभाव देखने को मिल रहा है, बच्चे  और अभिभावक शिक्षा के प्रति उदासीन हो गए है और लापरवाह भी। जिसका परिणाम शिक्षा का गिरता हुआ स्तर दिखाई दे रहा है, पुनः परीक्षा की व्यवस्था  एवं पूर्व की भांति कमजोर बच्चों को रोकने की व्यवस्था पर भी पुनर्विचार होना चाहिए ।