एक देश, एक चुनाव, पार लगेगी भाजपा की नाव .... ! 

एक देश, एक चुनाव, पार लगेगी भाजपा की नाव .... ! 

-  छत्तीसगढ़, एमपी, राजस्थान की खातिर ब्रम्हास्त्र चला सकते हैं मोदी...

 रायपुर (अर्जुन झा)। हिमाचल और कर्नाटक की हार के बाद छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश और राजस्थान में दुर्दशा से बचने भाजपा कोई ऐसा ब्रम्हास्त्र चला सकती है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के आभामंडल का सीधा असर राज्यों के चुनाव पर पड़े। पहले देखा जा चुका है कि आम चुनाव में देश की जनता ने मोदी की खातिर भाजपा को समर्थन दिया लेकिन राज्यों के चुनावों में स्थानीय मुद्दे प्रभावी रहे। वहां मोदी का जादू नहीं चल पाया। मोदी मैजिक राज्यों में भी चले, इसका एक उपाय है कि देश में एक साथ चुनाव की वह व्यवस्था बहाल हो जाये, जो 60 के दशक में बंद हो गई। ऐसा हुआ तो देश में एक साथ चुनाव हो सकते हैं, इसके लिए आम सहमति की जरूरत है। इस बाबत प्रधानमंत्री मोदी वर्ष 2019 में ही पहल कर चुके हैं। अब इस दिशा में तेजी से कदम उठाने का समय आ गया है। भारत निर्वाचन आयोग इस विषय पर सकारात्मक रुख अपना सकता है। मोदी के अचानक फैसलों को देखते हुए चर्चा जोर पकड़ रही है कि मोदी है तो कुछ भी मुमकिन है। पर, क्या वह विपक्ष इस पर सहमत हो सकता है, जो मोदी के हर फैसले का घनघोर विरोध करता है। वैसे केंद्र सरकार के सिटीजन एंगेजमेंट प्लेटफॉर्म MyGov ने लोकसभा और राज्य विधानसभा दोनों के लिए एक साथ चुनाव कराने पर चर्चा शुरू की है। यह राष्ट्रपति और प्रधान मंत्री दोनों द्वारा एक साथ चुनाव कराने के पक्ष में बोलने के बाद सामने आया है। कार्मिक, लोक शिकायत, कानून और न्याय पर संसदीय स्थायी समिति की 79वीं रिपोर्ट पिछले साल संसद के दोनों सदनों में पेश की गई थी । यह रिपोर्ट 'लोक सभा और राज्य विधान सभाओं के एक साथ चुनाव कराने की व्यवहार्यता' के मुद्दे पर है। समिति ने अपनी रिपोर्ट में अनुभव किया कि इस महत्वपूर्ण मुद्दे पर बहस शुरू की जानी चाहिए और बार-बार चुनाव से बचने के लिए राष्ट्रीय आम सहमति बनाने का प्रयास किया जाना चाहिए। विदित है कि 1960 के दशक के अंत में एक साथ चुनावों का सिलसिला रुक गया। लोकसभा और सभी राज्य विधानसभाओं के पहले आम चुनाव 1951-52 में एक साथ हुए थे। 1957, 1962 और 1967 में हुए तीन आम चुनावों में यह क्रम जारी रही। 1968 और 1969 में कुछ विधान सभाओं के विघटन के साथ यह क्रम बाधित हो गया। 1970 में लोकसभा को समय से पहले ही भंग कर दिया गया और नए चुनाव 1971 में हुए। पहली , दूसरी और तीसरी लोकसभा ने पांच साल का कार्यकाल पूरा किया। संविधान के अनुच्छेद 352 (इमरजेंसी) के तहत 5 वीं लोकसभा का कार्यकाल 1977 तक बढ़ाया गया था। मतलब यह कि एक देश में एक साथ चुनाव कराने की व्यवस्था भारत में पहले थी। यह जैसे बदल गई, वैसे इसकी बहाली भी हो सकती है। मोदी पर विपक्ष वैसे भी मनमाने ढंग से फैसले लेने, तानाशाही करने के आरोप लगाते रहता है। एक आरोप और सही। कहने वाले कह सकते हैं कि मोदी कड़े और बड़े फैसले लेने में जरा भी संकोच नहीं करते। जीएसटी लागू कर दी, नोटबंदी लागू कर दी, धारा 370 खत्म कर दी,  तीन तलाक खत्म कर दिया, देश भर में लंबा लॉक डाउन कर दिया, पाकिस्तान पर एयर स्ट्राइक कर दी, 2 हजार के नोट फिर बंद कर दिए।  वे कुछ भी कर सकते हैं। एक साथ चुनाव का फैसला भी मौका देखकर कर सकते हैं। देश की जनता इस फैसले का समर्थन कर सकती है। चुनाव आयोग भी यही चाहेगा कि बार बार चुनाव में देश का धन खर्च न हो। सरकारी तंत्र चुनाव में वर्तमान स्थिति जैसा न उलझे। अब राजनीतिक पहलू यह है कि भाजपा छत्तीसगढ़ में दुर्बल है। मध्यप्रदेश में जोड़तोड़ करके सत्ता में है लेकिन अब स्थिति ठीक नहीं है। राजस्थान में भी कोई सत्ता की थाली उसके सामने नहीं है। इसके बाद लोकसभा चुनाव सिर पर हैं। यदि एक साथ चुनाव की व्यवस्था बहाल हो गई तो मोदी के नाम का फायदा भाजपा को मिल सकता है। वैसे दांव उलटा भी पड़ सकता है। ऐसा हुआ तो राजनीति नए सांचे में ढल जाएगी।