नगपुरा। श्री उवसग्गहरं पार्श्व तीर्थ नगपुरा में चातुर्मास महोत्सव के अंतर्गत आयोजित श्री आचारांग सूत्र प्रवचन श्रृंखला में साध्वीश्री लब्धियशा श्रीजी म.सा. ने कहा कि मन की सरलता से शुद्धि आती है और शुद्ध मन से ही धर्म का स्थायित्व संभव है। विचारों की निर्मलता से आचरण में पवित्रता आती है। मन की शुचिता हेतु शब्दों, विचारों और भावों को शुद्ध रखना आवश्यक है, क्योंकि मनःस्थिति का निर्माण इन्हीं के आधार पर होता है।
साध्वीश्री ने कहा कि जब अंतरात्मा शुद्ध होती है, तभी बाह्य क्रियाएं भी कल्याणकारी बनती हैं। उन्होंने धर्म को जागरूकता के साथ जीवन का अभिन्न अंग बनाने की प्रेरणा दी। साध्वीजी ने कहा कि "धर्म ऐसा बनना चाहिए कि वह हमारी आदत में समा जाए और नींद में भी उसकी पुनरावृत्ति हो।"
प्रवचन में साध्वीश्री ने स्पष्ट किया कि मायावी और प्रमादी जीव जन्म-मरण के चक्र में फंसा रहता है। आत्मोन्नति के लिए प्रत्येक व्यक्ति को स्वयं ही दीपक बनना होगा। जीव स्वयं कर्म करता है और उन्हीं कर्मों के फल का भोग करता है। यदि धर्म को श्रद्धा, सरलता और सदाचार के साथ अपनाया जाए, तो व्यक्ति हर कठिन परिस्थिति को पार कर सकता है।
उन्होंने कहा कि शरीर यदि आलस्य, असंयम, उपेक्षा और दुर्व्यसनों में डूबा हो, तो उसकी सारी विशेषताएँ नष्ट हो जाती हैं। इसी प्रकार मन भी यदि कुसंस्कारों से ग्रसित हो जाए, तो वह पतनोन्मुख, आलसी और निर्बल बन जाता है। उन्होंने चेताया कि समय की बर्बादी एक मानसिक दुर्गुण है और प्रमाद आत्मसाधना का सबसे बड़ा शत्रु है।
प्रमादी व्यक्ति धर्मसाधना नहीं कर सकता क्योंकि वह जो करना चाहिए उसमें अरुचि रखता है और जो नहीं करना चाहिए, उसमें रुचि लेता है। ऐसा व्यक्ति अपने जीवन का अमूल्य समय व्यर्थ गंवा देता है।
साध्वीश्री के इन प्रेरक वचनों ने उपस्थित श्रद्धालुओं को मन की शुद्धता और जागरूक धर्मानुष्ठान की ओर प्रेरित किया। कार्यक्रम में बड़ी संख्या में श्रद्धालु उपस्थित रहे और धर्मचर्चा का लाभ लिया।
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