देवकर में जैन समाज का सबसे बड़ा पर्व पर्यूषण महापर्व धूमधाम के साथ मनाया जा रहा है, तप तपस्या, ध्यान आराधना, त्याग, अहिंसा के साथ पर्यूषण पर्व अग्रसर

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दक्षिणापथ फीचर। स्त्रियों को दिमाग़ी चरम सुख के लिए लड़ना चाहिए यानी पढ़ाई-लिखाई से मिलने वाली मानसिक संतुष्टि। सारी मुक्ति का रास्ता यहीं से खुलता है। अब तक हमारे देश में औरतों को पढ़ने लिखने, अपना मनचाहा करियर चुनने तक की आज़ादी नहीं है। ये सब मिल जाए तो मनचाहा साथी चुनने का हक़ मांगें। यदि साथी मनवांछित नहीं हो तो गरिमापूर्ण तरीके से तलाक लेकर अलग हो जाएं और अपने मन मुताबिक जीवन जिएं। रिश्तों में प्रतिबद्धता और नैतिकता इतनी घिसी हुई चीज़ भी नहीं। यदि विवाह/ सह जीवन चुना है तो रिश्ते की गरिमा का निर्वाह स्त्री-पुरुष दोनों को करना चाहिए। किसी भी मसले का हल बाहर निकलकर या किसी डेटिंग एप पर नहीं आपसी संवाद और काउंसलिंग से निकल सकता है। अपने साथी को धोखा देकर, बाहर सुख तलाशकर आप सिर्फ़ रिश्तों की गरिमा ही नहीं, अपने साथी की अस्मिता, उसकी डिग्निटी का हनन करते हैं। ऐसा करने का अधिकार स्त्री हो या पुरुष किसी को नहीं है। यदि रिश्ते में कोई संतान हो तो उसके जीवन पर कभी नहीं मिटने वाला नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है। विवाह संस्था में बहुत कमियाँ हैं लेकिन उसका कोई ठीक -ठाक विकल्प हम अबतक नहीं खोज पाए हैं। डेटिंग एप या बाहर प्रेम के नाम पर हो रहे स्त्री शोषण की स्थिति अधिक भयावह है। बेहतर हो कि यदि तमाम कोशिशों के बाद भी अपने विवाह में घुटन झेल रहे तो गरिमापूर्ण तरीके से अलग हो जाएं। वैसे स्वस्थ संवाद से कई मुश्किलें हल की जा सकती हैं। एक उम्र के बाद वैसे भी मानसिक जुड़ाव ज़्यादा महत्वपूर्ण हो जाता है, विशेषकर स्त्रियों के लिए। वे अपने लिए ऐसा साथी चाहने लगती हैं जिससे वे संवाद कर सकें, सुख-दुख साझा कर सकें। उससे सिर्फ़ शारीरिक ही नहीं मानसिक ऑर्गैज़्म भी पा सकें। वैसे भी ये दोनों बातें एक दूसरे पर टिकी हैं, यानी बिना दिमागी जुड़ाव के शरीर सुख असंभव नहीं तो अत्यंत कठिन अवश्य है। कमोबेश यह बात पुरुषों के लिए भी लागू है। शायद बिना प्रेम के बनाया गया सम्बन्ध उन्हें क्षणिक सुख अवश्य दे दे, अन्ततः वह भी अपनी दिमाग़ी तलब मिटा सकने वाला साथी चाहने लगते हैं। स्त्रियों को दिमाग़ी ऑर्गैज़्म चाहिए जिसका रास्ता किताबों और कलाओं द्वारा खुलता है। सदियों के संघर्ष के बाद स्त्री ने ज्ञान भवन के विशालकाय लौह पट्ट पर पड़ी शृंखलाएं खोल तो ली हैं लेकिन अब भी जहाँ उन्मुक्त होकर विचरण नहीं कर पा रही। अब भी मुक्ति की वास्तविक चाभी वहीं क़ैद है।