अबूझमाड़ में नई सुबह, किसानों को मिलने लगा उनका हक

अबूझमाड़ में नई सुबह, किसानों को मिलने लगा उनका हक
भोपाल । मध्यप्रदेश में नया साल यानी 2022 कांग्रेस और प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कमलनाथ के लिए अत्यंत चुनौतीपूर्ण रहने वाला है। पार्टी के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती लगातार कमजोर होते जनाधार को बचाना है। दूसरी तरफ कमलनाथ के एकतरफा वर्चस्व के खिलाफ प्रदेश में असंतोष भी बढ़ता जा रहा है। इसलिए नए साल में कमलनाथ के लिए सबसे बड़ी चुनौती यही रहेगी कि वह अपनी पकड़ बनाए रखें। बीता वर्ष पार्टी के लिए अच्छा नहीं रहा। हालांकि प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कमलनाथ की पार्टी पर पकड़ बनी रही लेकिन कांग्रेस ने अपना जनाधार खोया है। विधानसभा उपचुनावों में उसे तीन में से दो सीटें हारनी पड़ी। जोबट और पृथ्वीपुर की सीट भाजपा ने कांग्रेस से छीनी। यह दोनों सीटें कांग्रेस का गढ़ रही हैं। दूसरी तरफ रैगांव की सीट कांग्रेस ने भाजपा से छीनी लेकिन इसका श्रेय कमलनाथ की बजाय अजय सिंह को गया। खंडवा सीट के परिणाम ने भी कमलनाथ को झटका दिया है। झटका इस संदर्भ में कि कांग्रेस यह सीट 82 हजार मतों से हारी। यदि कमलनाथ समर्थक अरुण यादव का रास्ता नहीं रोकते और अरुण यादव पार्टी के प्रत्याशी होते तो चुनाव परिणाम बदल सकता था। खंडवा में अरुण यादव के प्रत्याशी नहीं होने और कमलनाथ को हिंदुत्ववादी नीतियों के कारण अल्पसंख्यकों का मतदान 45 फीसदी के लगभग रहा, जिससे पार्टी हार के कगार पर पहुंची। पंचायत चुनाव के मामले में कमलनाथ का कथन और उनकी रणनीति सही होते हुए भी विवेक तन्खा के कारण पार्टी पर ओबीसी विरोधी होने का ठप्पा लगने की स्थिति बन गई। कमलनाथ बीते वर्ष पार्टी को एकजुट नहीं रख सके। बड़वाह के युवा विधायक सचिन बिरला ने कांग्रेस छोड़कर भाजपा की सदस्यता ग्रहण की। इसके अलावा भी पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह के साथ उनके मतभेद सतह पर आते गए। दूसरी पंक्ति के नेताओं को कोई काम नहीं दिया गया। मीनाखी नटराजन, सुरेश पचौरी, अरुण यादव और अजय सिंह जैसे नेता हाशिए पर रहे। मीनाक्षी नटराजन ने तो प्रदेश में अपनी सक्रियता बिल्कुल कम कर दी। वे आजकल पूरे समय राहुल गांधी के राजनीतिक सचिवालय के प्रभारी के तौर पर सक्रिय हैं। कमलनाथ का कांग्रेस की राजनीति में वर्चस्व बना रहा लेकिन उनकी सक्रियता कम नजर आई। 2020 में हुए 28 विधानसभा उपचुनावों में कमलनाथ जिस तेवर के साथ सक्रिय रहे 2021 के चार उपचुनावों में वह सक्रियता नजर नहीं आई। उनेक स्वास्थ्य को लेकर भी अलग-अलग तरह की अटकलें चलती रही। कमलनाथ को अब हर महीने चेकअप के लिए गुरुग्राम के मेदांता हॉस्पिटल जाना पड़ता है। इसके अलावा सोनिया गांधी भी उन पर काफी निर्भर करती हैं। इसीलिए कमलनाथ को दिल्ली में भी काफी समय देना पड़ता है। इन सबके बावजूद कांग्रेस में उनका वन मैन शो जारी है। इस कारण पार्टी के भीतर असंतोष भी है। कमलनाथ के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती यही है कि वे पार्टी के भीतर अपना वर्चस्व कैसे बनाए रखें? इसके अलावा जिस तरह से भाजपा उसके विधायकों को तोड़ रही हे वह भी कमलनाथ के समक्ष बड़ा संकट है। माना जा रहा है कि करीब आधा दर्जन कांग्रेस विधायक भाजपा के संपर्क में हैं। यदि इन विधायकों ने दल बदल कर दिया तो कमलनाथ को प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष पद पर बने रहना मुश्किल हो जाएगा। कांग्रेस आदिवासी क्षेत्रों में लगातार कमजोर हाती जा रही है। 2018 में आदिवासी सीटों पर अच्छा प्रदर्शन करने के कारण ही उसकी सत्ता में वापसी हुई थी, लेकिन भाजपा ने इन क्षेत्रों में अपनी स्थिति में सुधार किया है। पिछले वर्ष हुए उपचुनाव में नेपानगर, अनूपपुर और इस वर्ष जोबट आदिवासी सुरक्षित सीट पर भाजपा ने कांग्रेस को मात दी और उससे सीटें छीनीं। खंडवा लोकसभा क्षेत्र में भी चार आदिवासी सीट सुरक्षित हैं। यह सीट भी कांग्रेस हारी। दूसरी ओर जयस लगातार मजबूती प्राप्त कर रहा है। इसी तरह बहुजन समाज पार्टी की भी पकड़ विंध्य क्षेत्र में बनी हुई है। 2023 के चुनाव में कांग्रेस की कमजोर स्थिति को देखते हुए कमलनाथ जयस और बासपा से तालमेल करने का विचार कर रहे हैं। वे करीब 30 सीटें इन दलों को दे सकते हैं। प्रदेश कांग्रेस को दूसरा खतरा आम आदमी पार्टी और तृणमूल कांग्रेस से है। तृणमूल कांग्रेस लगातार कांग्रेस को कमजोर करती जा रही है। टीएमसी की निगाहें प्रदेश में एक बड़े नेता पर हैं। यदि बात जम गई तो कांग्रेस को इस वर्ष बड़ा झटका लग सकता है। मालवा निमाड़ अंचल में कांग्रेस विशेष रूप से अपना जनाधार खोती जा रही है। पिछले वर्ष मालवा निमाड़ में हुए उपचुनाव में सात में से छ: उपचुनाव जीतकर भाजपा ने मालवा निमाड़ अंचल में अपनी पकड़ मजबूत की थी। इस वर्ष भी उसने यहां के दोनों उपचुनावों में खंडवा और जोबट की सीटें जीतकर कांग्रेस को झटका दिया।