स्कूली बच्चों को 63 दिनों का मिलेगा राशन, जिला शिक्षा अधिकारियों को सूखा राशन वितरण कराने के निर्देश

स्कूली बच्चों को 63 दिनों का मिलेगा राशन, जिला शिक्षा अधिकारियों को सूखा राशन वितरण कराने के निर्देश
लेखिका - नीतू श्रीवास्तव दक्षिणापथ. अक्सर देखा होगा कि जब एक परिवार में लड़की का जन्म होता है तो सारा परिवार खुशी से झूम उठता है ।उसके लिए सब के द्वारा सुंदर सा नाम सोचना, उसे लेकर तरह-तरह के ख्वाब बुनना..इंद्रधनुषीय दुनियां में अपनी बेटी के उज्जवल भविष्य की कल्पना करना.. उसके लिए हर वो चीज मुहैया करना जिससे उसके चेहरे पर मनमोहक मुस्कान आ जाये। पर इतने प्यार से लालन पालन के बाद भी घर की लाडली को बचपन से बस एक ही बात सुननी पड़ती है वो भी अपनो के मुंह से कि "ये तो पराया धन है एक ना एक दिन हम सब को छोड़कर दूसरे के घर चली जायेगी" यानि पराई हो जायेगी। यही सुनते - सुनते बेटियाँ कब बड़ी हो जाती है पता ही नही चलता। मै भी इसी दौर से गुजरी हूं, बचपन से ये सवाल मेरे साथ भी जोंक की तरह चिपका रहा। स्कूल,कॉलेज की पढ़ाई, तरह- तरह के कोर्स, कुछ साल जॉब भी किया और फिर वही जो हर आम लड़की के साथ होता है झटपट हाथ पीले करने की तैयारी शुरू ,विवाह की बाते चलने लगी, रिश्ते आने लगे। और फिर वो दिन भी आया ढोल बारात के साथ किसी ने मेरे जीवन दस्तक दी और बड़े धूम धाम से माता,पिता और परिवार ने विदा किया और इस तरह नाजो से पाली बेटी यानि मै देखते ही देखते हमेशा के लिए पूरी तरह पराई होकर एक दूसरे परिवार में पहुच गई। नए परिवार में आकर भी मुझे नए नए नियम, नए नए रीति रिवाज,ओर कई नई बातो को सीखना ओर अपनाना पड़ा। जाने अंजाने कभी कुछ गलत हो जाये तो यहां भी वही "पराया" शब्द कानो में पारा उड़ेलता था। कि "कोई बात नही धीरे धीरे सीख जायेगी पराए घर से आई है थोड़ा टाइम तो लगेगा" तब याद आने लगती थी वहीं वर्षों पुरानी अपनों के द्वारा ही कहीं गई बात कि ये तो पराया धन है एक दिन पराई हो जायेगी।ओर यहां ससुराल में भी वही बाते कि पराए घर से आई है धीरे धीरे सब समझ जाएगी लेकिन यही पराया शब्द वक़्त बे वक्त अंदर ही अंदर बहुत कचोटता था। धीरे - धीरे समय बदला -लोग बदले, रिश्ते बदले,मेरी खुद की पहचान बदली, बेटी से बहु बनी और बहू से मां। पहले लोग मुझे मेरे पिता के सरनेम से जानते थे अब मेरे पति के सरनेम से जानते है। सब कुछ वक्त के साथ बदल गया है पर अगर कुछ नही बदला तो वो था ये तीन अक्षर का "पराया"शब्द। बहुत से शौक, बहुत सी खुशिया , बहुत कुछ कर दिखाने की चाह ,बहुत से अरमान कही न कही चूल्हे चौके के पीछे दब गए।ओर इस तरह घर,गृहस्थी,परिवार की जिमेदारी,बच्चो का पालन -पोषण इन सब मे उलझ कर मैं कहा खो गई पता ही नहीं चला। अपने को बिज़ी रखने के लिए कुछ सालों तक बच्चो को ट्यूशन पढ़ाया, कुछ समय बाद बिजनेस करने का ख्याल मन मे आया क्योंकि।ब्यूटीशियन का कोर्स भी किया था। अपना पार्लर चलाया भी लेकिन अन्दर से कहीं ना कहीं कचोट बनी हुई थी। इस दरमिया हुई एक घटना ने मुझे जीने का मकसद दे दिया। बच्चों को स्कूल लेे जाते वक़्त नजर पड़ी एक रोती बिलखती औरत पर जिसकी 4- साल की बेटी भी अपनी मां के समीप सुबक रही थी। पूछने पर पता चला कि उसका शराबी पति रोज मार पीट कर घर से निकाल देता था। वो मरना भी चाहती है लेकिन बेटी किसको सौंपे। मुझे लगा सबसे पहले उसका हक उसे दिलवाऊ। और इस तरह मेरे क़दम दबे कुचले लोगो को अधिकार दिलाने की ओर अग्रसर होने लगे। शुरू में तो परिवार वाले और मेरे कुछ शुभचिंतक भी समझाते थे कि ये समाजसेवा करके क्या मिलेगा सिवाय टाईम खराब करने के वगैरह वगैरह। पर मैं उनकी बातों से निराश नही हुई। क्योंकि मुझे अहसास था अपने सपनों का, मै अच्छी तरह जानती थी कि मेरी खुशी क्या है ये कभी दूसरे नहीं समझेंगे। समाजसेवा मेरे लिए सिर्फ एक काम नही था बल्कि मेरा जुनून था।जिसके उड़ान भरने का समय अब आया था।मैने अपने आप में देखा कि खुद मेरे अंदर एक जोश एक स्फुर्ती का विकास होने लगा।और कही न कही अंतर्मन से एक आवाज आई कि तू बढ़ आगे यही वो तेरा रास्ता है जिस पर चलकर तू कामयाबी पायेगी ।और फिर मैंने पीछे मुड़कर नहीं देखा घर परिवार के काम से फुरसत होने के बाद में अपना पूरा टाइम समाजसेवा को देने लगी। जिसके अंतर्गत मैं जरूरतमंद महिला, बच्चे,बुजुर्ग,दिव्यांगों,लोगो की मेडिकल जरूरतों के लिए भी काम करने लगी। आज लोग मुझे मेरे पिता या पति के नाम से नही बल्कि मेरे अपने ख़ुद के नाम से जानते है। मेरे काम से आज मेरा अस्तित्व है मेरी पहचान है। बड़े बड़े मंचो में मेरा सम्मान होता है, इंटरव्यू छपते है। लोगो का प्यार और दुवाएं भी बहुत मिलती है।काफी संघर्षों के बाद आज वो जगह मैने पा ली जो मेरा सपना था।मेरे हौसले,परिवार,मेरे मित्रगण,सब के साथ ओर सहयोग से आज मैं यहां तक पहुच गई। अपने जीवन वृत्तांत के माध्यम से देश भर की महिलाओ से सिर्फ यही कहना चाहुगी की अगर आप के अंदर जुनून है और कुछ करने की चाह है तो सब से पहले अपने आत्मविश्वास को बनाये रखे। तक़लिफों से घबराए नही। क्योंकि संघर्ष के दौर में भले आप के साथ कोई न हो पर यकीनन मानिए कि कामयाबी मिलते ही आप के पीछे पूरा कारवाँ नज़र आएगा। आप को अपनी मंजिल के अलावा कुछ न दिखाई दे इतनी शिदत से अपने काम को करते रहिए और आगे बढ़िए। जी लीजिये अपने सपनों को।।ईश्वर द्वारा दी गई इस जिंदगी को अपने द्वारा किये गए कर्मो से इतना सुंदर सजा लीजिए कि कल जब हम न हों तब भी हमारे द्वारा किये गए कार्यों से हमें जाना जाए। और सबसे आखिर में एक ही बात, बेटियां पराई कभी नही होती वो तो परायों को जोड़ने वाली बस बीच की कड़ी होती है।जिस से परिवार बनता है और सृष्टि चलती है

लेखिका - नीतू श्रीवास्तव समाजसेविका संस्थापिका/अध्यक्ष श्रुति फाउंडेशन छत्तीसगढ़ दुर्ग